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मन्त्र-अंग
साधना में सफलता तभी मिल सकती है, जब हम उसके मर्म को, उसके मूल रहस्य को समझें । साधना का सीधा-सादा मर्म यह है, कि परमात्मा से भाव, भाव से नाम तथा नाम से संसार बना है, अतः विपरीत रूप से चलकर ही अर्थात् विश्व, विश्व से भाव तथा भाव से परमात्मा अर्थात् मन्त्र सिद्धि तक पहुंचा जा सकता है।
भारद्वाज ने मन्त्र योग संहिता में मन्त्र योग के सोलह अंग बताये हैं
भवन्ति मंत्र योगस्य षोडशांगानि निश्चितम् । यथा सुधांशो र्जायन्ते कला: षोडश शोभनाः ।।
भक्ति शुद्धिश्चासनं च पंचागस्यापि सेवनम् । आचार धारणे द्विव्य देश सेवन मित्यपि ।।
प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः । यागो जपस्तथा ध्यानं समाधिश्चेति षोडश ।।
(१) भक्ति (२) शुद्धि (३) आसन (४) पंचांग सेवन (५) आचार। ( ६) धारणा। (७) दिव्यदेश सेवन। (८) प्राणक्रिया (६) मुद्रा। (१०) तर्पण (११) हवन (१२) बलि (१३) योग (१४) जप (१५) ध्यान। (१६) समाधि ।
१. भक्ति-साधक को नवधार्भाक्त का पूर्ण ज्ञान और क्रिया विचार, स्पष्ट रूप से होना चाहिए। नवधाभक्ति में निम्न प्रकार से भक्ति की जाती है-
श्रवणं कीतं नं विष्णो स्मरणं पाव सेवनम् ।
अर्चनं बंदनं वास्यं सख्य मात्म निवेदनम् ।।
(१) श्रवण (२) कीर्तन (३) स्मरण (४) पाद सेवन (५) अर्बन (६) वन्दना। (७) संखाभाव। (८) आत्मभावना। (६) निवेदन ।
२. शुद्धि- शुद्धि के अनेक भेद हैं, जिसका साधनाकाल में ज्ञान जरूरी है,
यथा-
दिक्शुद्धि (१) किस दिशा में मुख करके साधना करनी चाहिए ।
स्थान शुद्धि (२) किस प्रकार के स्थान पर बैठकर साधना करनी चाहिए ।
शरीर शुद्धि (३) स्नान कब किस प्रकार से करना चाहिए ।
मन शुद्धि (४) प्राणायाम आदि द्वारा ।
आसन शुद्धि (५) किस साधना में किस प्रकार के आसन का उपयोग करना चाहिए ।
३. आसन- अलग-अलग मन्त्र साधनाओं में अलग-अलग आसनों-पद्मासन, सिद्धासन आदि का उपयोग करना चाहिए, तभी पूर्ण लाभ होता है।
४. पंचांग- सेवन-इष्ट सेवा, सहस्रनाम, स्तव, कवच और हृदयन्यास-ये पांचों मिलकर पंचांग कहलाता है, कई साधनाओं में इनका प्रयोग और उपयोग किया जाता है।
५. आचार- जीवन में साधना हेतु उचित नियमों का तत्परता व दक्षता से पालन ही आचार कहलाता है।
६. धारणा – मन को किसी विशेष बिन्दु पर लगाने एवं लीन करने को धारणा कहते हैं।
७. दिव्यदेश साधन- शरीर में सोलह दिव्यदेश हैं, जो कि मूर्धास्थान हृदय, कंठ, नाभि आदि हैं, इन स्थानों पर प्राणों को संचरित कर साधना को जाती है।
८. प्राणक्रिया- मन्त्र शास्त्र में एवं साधना ग्रन्थों में प्राणायाम के अलावा शरीर स्थित अन्य स्थानों पर प्राण एकत्र कर साधना करना प्राण क्रिया कहलाता है :
६. मुद्रा – अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए दोनों हाथों से जो मुद्राएं बनाई जाती हैं उनका साधना में विशेष महत्व है।
१०. तर्पण-विशेष पदार्थ द्वारा इष्टदेव को समर्पण-तर्पण कहलाता है।
११. हवन अग्नि में हविष्यान्न आहुति को हवन कहा जाता है।
१२. बलि-बलि तीन प्रकार की होती है-(हिंदू धर्म कभी जीव बलि की बात नही करता)
१. आत्म बलि अहंकार आदि का त्याग
२. अन्तर्बलि-काम, क्रोधादि तथा इन्द्रियनिग्रह
३. बाह्य बलि-फलादि की बलि ।
१३. योग- योग के दो भेद हैं (१) अन्तयोंग (२) बहिर्योग
१४. जप- इष्ट के नामस्मरण को तथा सतत उच्चरित समान ध्वनि को जप कहा जाता है।
जप तीन प्रकार का होता है।
१. वाचनिक
२. उपांशु
३. मानसिक
१५. ध्यान- मन के द्वारा इष्ट के रूप को आंखें बन्दकर देखने की क्रिया को ध्यान कहा जाता है।
१६. समाधि-इष्ट के रूप का ध्यान करते-करते अपने आपको भूल जाने की स्थिति ही समाधि कहलाती है।
साधक को चाहिए, कि किसी भी प्रकार की साधना में उद्यत होने से पूर्व इन सोलह अंगों का सम्यक् पालन करना चाहिए ।