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कर्ण ने श्री कृष्ण जी से कहा:- क्या मेरे सामर्थ्य का परिचय कभी नहीं हो पाएगा

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श्री कृष्ण भगवान जी ने अंगराज कर्ण से कहा. .. भगवान परशुराम के शब्दों का स्मरण कीजिए अंगराज कर्ण. . . ( जाओ कर्ण, जीवन में एक ऐसा समय आएगा, जब तुम्हारे लिए, परीक्षा का सबसे बड़ा क्षण होगा, उसी क्षण. तुम्हारी विद्या. तुम्हारा साथ छोड़ देगी. लुप्त हो जाएगी. तुम्हारे किसी काम नहीं आएगी.) यह भगवान परशुराम का श्राप नहीं अंगराज कर्ण. प्रकृति का नियम है. जो विद्या अनीति और अधर्म के मार्ग पर चलकर प्राप्त की जाती है उसकी आवश्यकता के समय में उसका साथ छोड़ देती है…

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. … किंतु मैंने अथक श्रम किए थे विद्या प्राप्त करने के लिए वासुदेव. फिर क्यों मुझे. मेरी विद्या का भी. विस्मरण हो गया. …

श्री कृष्ण भगवान जी ने. अंगराज कर्ण से कहा. … विद्या प्राप्त करने का प्रयत्न आपने क्यों किया था अंगराज कर्ण. क्या विद्या का. महत्व जाना था आपने. विद्या प्राप्त करके समाज को लाभ देने की इच्छा थी आपके ह्रदय में. या केवल अपने अपमान का प्रतिशोध लेने हेतु विद्या प्राप्त कि आपने. वास्तव में विद्या प्राप्त करने हेतु श्रम की तो आवश्यकता ही नहीं होती. केवल एकाग्रता और समर्पण पर्याप्त है. ज्ञान तो आत्मा का सहज गुण है. और आप आप बुद्धिमान हैं. आप ही बताइए. विद्या ग्रहण करते समय. मन एकाग्र क्यों नहीं रहता. जब ज्ञान को. मनुष्य. साधन मानता है. किसी अन्य वस्तु को. प्राप्त करने हेतु. ज्ञान ग्रहण करने निकलता है. तब. ज्ञान ग्रहण करते समय. उसका मन स्थिर नहीं हो पाता. ज्ञान उसकी आत्मा का गुण नहीं बन पाता. जैसे रंग. रंग वस्त्र का अपना गुण नहीं होता इसलिए सूर्य प्रकाश में. तप कर. छूट जाता है. जो व्यक्ति. अमूल्य ज्ञान का. मूल्य जानकर ज्ञान प्राप्त करता है. वह उत्तम बन जाता है. किंतु जो व्यक्ति कुछ और प्राप्त करने के आश्चर्य से ज्ञान प्राप्त करता है. वह जीवन भर श्रेष्ठ बनने की. स्पर्धा में लगा रहता है. किंतु उत्तम नहीं बन पाता. आपने भी ज्ञान प्राप्त किया. इसी आश्चर्य से. भगवान की शरण में रहकर भी आपका मन शांत नहीं हुआ. आप प्रतियोगिता करते रहे दूर बैठे अर्जुन के साथ… ज्ञान प्राप्ति का आपका आश्चर्य ही अनुचित था. तो इस विद्या का विस्मरण कैसे नहीं होता अंगराज कर्ण. …

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. कैसे नहीं करता मैं प्रतियोगिता वासुदेव. कैसे समझौता कर लेता मैं. अपने जीवन के साथ. यह समाज. निरंतर ही मेरी संभावनाओं को कुचलता रहा है. मेरी शक्ति को सम्मान नहीं दिया. मेरे सपनों को. स्वीकार नहीं किया. सदा ही. सदा ही सूद पुत्र. कहकर अपमानित करता रहा है मुझे. ईश्वर की दी हुई संभावनाओं पर. मनुष्य का अधिकार है वासुदेव. फिर यह समाज. किसी को. किस प्रकार. उसके अधिकार को. वंचित कर सकता है. …
श्री कृष्ण भगवान जी ने. अंगराज कर्ण से कहा – अवश्य ही यह घोर अपराध है राधे. जाती पाती का भेद करना. और इन मिथ्या भेदो के आधार पर. किसी मनुष्य को. या समाज के. किसी भाग को. विकास से अवसर से संपत्ति से या सम्मान से वंचित रखना मानवता के विरुद्ध है, अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. . फिर. मेरा क्या दोष है वासुदेव. यदि मेरे मन में असंतोष जन्मा. यदि मैंने प्रतियोगिता की, यदि मैंने बलपूर्वक अपना अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न किया. तो उसमें मेरा क्या दोष है वासुदेव… .

श्री कृष्ण भगवान जी ने. अंगराज कर्ण से. कहा – एक समय था अंगराज. जब कृत वीर के पुत्र. कर्तवीर अर्जुन नाम के. एक क्षत्रिय राजा ने. महा ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी. महा ऋषि जमदग्नि के पुत्र ने क्या किया जानते हैं आप अंगराज कर्ण. उन्होंने अपनी पीड़ा में भी विचार किया कि. क्यों उनके पिता महा ऋषि जमदग्नि की हत्या की गई. कहां फैला था अधर्म. उन्होंने अपनी पीड़ा का भी. विस्मरण कर दिया. समग्र समाज की पीड़ा को अपना लिया. और समस्त अधर्मी व पापी क्षत्रियों का नाश कर. समस्त आर्यव्रत को शुद्ध करने को. अपना जीवन मंत्र बना लिया. वो केवल प्रतिशोध लेकर बैठते तो. आज भगवान परशुराम नहीं कहलाते. हां राधे… . आपको जो दुख और अपमान मिले वह वास्तविक थे. किंतु आप उन्हें अवसर बना लेते. तो समाज का उद्धार होता. और आपका भी कल्याण होता. आप जैसे शक्ति मान व्यक्ति का आधार यदि अन्य शोषित व पीड़ित लोगों को मिल जाता तो. कितने जीवन सुख से भर जाते. आपके पास संभावना भी थी. सामर्थ्य भी था. और उस पीड़ा का अनुभव भी था. किंतु आपने. अपने जीवन को. उन्हें समर्पित नहीं किया. आपने अपने जीवन को समर्पित कर दिया दुर्योधन को. जिसके पक्ष में केवल अधर्म था. और कुछ नहीं. अब देखिए अपनी स्थिति. आप दुर्योधन के पक्ष में खड़े रहे. आप पांचाली के. वस्त्र हरण जैसे पाप के भागी बने. आप अपनी माता का सम्मान नहीं कर पाए. अपने ही भाइयों के. दो. दो पुत्रों की. हत्या की आपने. और आज अपना धर्म गवा कर. अपनी विद्या गवा कर. अपना संतोष गवा कर. अपने ही. अनुज के हाथों. मरने के लिए. सज खड़े हैं. …

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा – आप यथार्थ कह रहे हैं. वासुदेव. किंतु मै मित्र दुर्योधन के उप कारों का भी विस्मरण नहीं कर सकता.

श्री कृष्ण भगवान जी ने. अंगराज कर्ण से कहा. . . कौन सा उपकार राधे. क्या आप से मित्रता करने के पश्चात. दुर्योधन ने. समग्र हस्तिनापुर के शुदो और पीड़ितों मनुष्यों को विद्या का अधिकार दे दिया. क्या उसने समग्र पीड़ित समुदाय को अपना लिया. नहीं. नहीं राधे. उसने केवल अपने लाभ हेतु आपसे मित्रता की. आपके हृदय में जो अर्जुन के प्रति. स्पर्धा थी. उसके कारण की. यदि आपने अपने दुखों का त्याग कर. समाज के दुखों को अपनाया होता तो. दुर्योधन की मित्रता की. मित्रता का सत्य. आप जान पाते. यदि दुर्योधन के हृदय में उपकार की भावना होती तो. आप उस के माध्यम से. संसार के समस्त पीड़ितों को. लाभ करवा पाते. वास्तव में उसे सारे अधर्मो और पापों से मुक्त करवा पाते. किंतु आपने यह सत्य जाना ही नहीं. आप पर किए गए उपकारो का वास्तव में. कोई मूल्य ही नहीं था… .

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. . . मैंने जीवन भर. पीड़ित और वंचितों को दान दिया है वासुदेव. अपनी संपत्ति में से. अपने पास. कुछ भी नहीं रखा. . . .

श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन जी से कहा – दान का वास्तविक लाभ. दान देने वाले को प्राप्त होता है. दान प्राप्त करने वाले को नहीं. यदि आपने. अपने सामर्थ्य का प्रयोग. यदि अपने जैसे पीड़ितों को. स्वतंत्रता दिलाने के लिए किया होता तो सब को लाभ होता राधे. आप कहते हैं कि समाज ने. आप की संभावनाओं का नाश कर दिया. किंतु ईश्वर द्वारा दी गई उन संभावनाओं का. मूल्य तो आपने जाना ही नहीं. एक सत्य जान लीजिए अंगराज कर्ण. जो व्यक्ति समाज के लिए जीता है. उसे स्वयं ही लाभ होता है. किंतु जो व्यक्ति. केवल अपने लिए ही जीता है. वो स्वयन्म को और समाज को दोनों को ही हानि पहुंचाता है. कुरुक्षेत्र में जो आज विध्वंस हो रहा है. उसका कारण ना दुर्योधन है. ना ही मामा श्री शकुनी. यह पाप तिन महारथियों का है. महामहिम भीष्म. गुरु द्रोण. और आप राधे. आप तीनों ने यदि अप माने हुए धर्म का त्याग करके. समाज के कल्याण का विचार किया होता. दुर्योधन को सहायता नहीं दी होती. तो यह युद्ध ही नहीं होता. …

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा – आप उचित कह रहे हैं वासुदेव. इस समाज को जितनी हानी अधर्मयों से नहीं होती. उससे अधिक हानि. धर्म जानने वालों की. निष्क्रियता से होती है. इस महायुद्ध का पाप हमारे सर है.

श्री कृष्ण भगवान ने. अंगराज कर्ण से कहा – अब भी समय है राधे. अपने दुखों को भूल जाइए. अपने अधर्म का त्याग कीजिए और अपनी मृत्यु को भी स्वीकार कर लीजिए. इसी में समाज का और आपका कल्याण है राधे. …

अंगराज कर्ण ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा – मैं आपका आदेश स्वीकार करता हूं वासुदेव. मृत्यु का भी स्वीकार करता हूं. मेरी माता कुंती से कहिए गा कि वह मुझे क्षमा कर दें. और पांचाली से भी कहियेगा मैंने अपना रक्त बहाया है. उसके अपमान के लांछन को धोने के लिए. बस एक प्रश्न है वासुदेव. क्या मेरे सामर्थ्य का परिचय कभी नहीं हो पाएगा.

श्री कृष्ण भगवान जी ने. अंगराज कर्ण से कहा – राधे जब आपके हाथ में धनुष नहीं आप के रथ का पहिया भूमि मे धसा है और आपको अपनी विद्या का भी विस्मरन हो गया है ऐसे अवसर का लाभ उठाकर. आप का वध करना पड़ रहा है. क्या यही आपके सामर्थ्य का प्रमाण नहीं है अंगराज. .

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