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जानें सच्चिदानन्दन भगवान की दिव्य लीलाओं में चीरहरण का रहस्य

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चीरहरण के प्रसंग को लेकर कई तरह की शंकाएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्ध में कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तव में बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य बहुत थोड़े लोगों को होता है। जिस प्रकार भगवान चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी चिन्मयी होती हैं। सच्चिदानन्दरसमय साम्राज्य जिन परमोन्नत स्तर में यह लीला हुआ करती है, उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञान स्वरूप विशुद्ध चेतन परमब्रह्म में भी उसका प्राकट्य नहीं होता और इसीलिये ब्रह्मसाक्षातकार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रस का समास्वादन नहीं कर पाते।

भगवान की इस परमोज्ज्वल दिव्य रस-लीला का यथार्थ प्रकाश तो भगवान की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुंजेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदंगभूता प्रेममयी गोपियों के ही हृदय में होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान की इस परम अन्तरंग रसमयी लीला का समास्वादन करती हैं। दशम स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय में ऐसा वर्णन आया है कि भगवान की रूपामाधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो जाती हैं। बाईसवें अध्याय में उसी प्रेम की पूर्णता प्राप्त करने के लिये वे साधन में लग जाती है।

इसी अध्याय में भगवान आकर उनकी साधना पूर्ण करते हैं। यही चीर-हरण का प्रसंग है। गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधना से स्पष्ट है। वे चाहती थीं-श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण, श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-काल में उन्होंने श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि की चर्चा आपस में की थी, हेमन्त के पहले ही महीने में अर्थात भगवान के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्ष में उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था।

जाड़े के दिनों में वे प्रातःकाल ही यमुना -स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ हो जातीं, उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्य में-उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों।

श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही; परंतु लीला की दृष्टि से उनके समर्पण में थोड़ी कमी थी। वे निरावरण रूप से श्रीकृष्ण के सामने नहीं जा रहीं थीं, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करने के लिये-उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर पधारे थे। 

साधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है-पूर्ण समर्पण की तैयारी! उसे पूर्ण तो भगवान ही करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब लीला प्रकट करते हैं, तब वे मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता। परंतु हृदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी हलका कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके नग्न-स्नान करती थीं।

यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये। वैसी भक्ति का पर्यवसान रागात्मि का भक्ति में है और रागात्मि का भक्तिपूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मि का भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीरहरण के द्वारा वही कार्य सुसम्पन्न होता है।

गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, जिनका प्राप्ति के लिये ही उनका यह महान अनुष्ठान है, जिनके चरणों में उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनसे निरावरण मिलन की ही एकमात्र अभिलाषा उनके मन में है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान श्रीकृष्ण के सामने वे निरावरण भाव से न जा सकें-क्या यह उनकी साधना की अपूर्णता नहीं है? है, अवश्य है और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरण रूप से उनके सामने गयीं। 

श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वे ही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है, जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। वे ही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियों के, गोपों के और निखिल विश्व के वे ही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्हीं की उपासना करते हैं।

गोपियाँ उन्हीं भगवान को, यह जानते हुए कि ये ही भगवान हैं- ये ही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैं- पति के रूप मे प्राप्त करना चाहती थीं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का श्रद्धाभाव से पाठ कर जाने पर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती है कि गोपियाँ श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को जानती थीं, पहचानती थीं। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर गोपियों के अन्वेषण में यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है।

जो लोग भगवान को भगवान मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते हैं, स्वामी-सुहृद् आदि के रूप में उन्हें मानते हैं, उनके हृदय में गोपियों के इस लोकोत्तर माधुर्य सम्बन्ध और उसकी साधना के प्रति शंका ही कैसे हो सकती है। गोपियों की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेगी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि, हमारी दृष्टि देह तक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम को भी केवल दैहिक तथा कामनाकलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत लीला को इस प्रकृति के राज्य में घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओं का हानिकर परिणाम है।

जीव का मन भोगाभिमुख वासनाओं से और तमोगुणी प्रवृत्तियों से अभिभूत रहता है। वह विषयों में ही इधर-से-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकार के रोग-शोक से आक्रान्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मों का फल उदय होने पर भगवान की अचिन्त्य अहैतु की कृपा से विचार का उदय होता है, तब जीव दुःख ज्वाला से त्राण पाने के लिये और अपने प्राणों को शान्तिमय धाम में पहुँचाने के लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान के लीला धामों की यात्रा करता है, सत्संग प्राप्त करता है और उसके हृदय की छटपटी उस आकांक्षा को लेकर, जो अब तक सुप्त थी, जगकर बड़े वेग से परमात्मा की ओर चल पड़ती है।

चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपों का सामना करना पड़ता है। परंतु भगवान की प्रार्थना, कीर्तन, स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान की संनिधि का अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रस का अनुभव होते ही चित्त बड़े वेग से अन्तर्देश में प्रवेश कर जाता है और भगवान मार्गदर्शक के रूप में संसार-सागर से पार ले जाने वाली नाव पर केवट के रूप में अथवा यों कहें कि साक्षात चित्स्वरूप गुरुदेव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमा का बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द-विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति होने लगती है।

गोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान की अन्तरंग लीला में प्रविष्ट होने वाली हैं, चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभ के समीप पहुँच चुकी हैं, अथवा जो नित्यसिद्धा होने पर भी भगवान की इच्छा के अनुसार उनकी दिव्य लीला में सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनमें हृदय के समस्त भावों के एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदय में बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालने के लिये साधना में लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियों से कितना प्रेम करते हैं- यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है। 

श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर बैठ गये। गोपियाँ जल में थीं; वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रही थीं-वे मानो इस तत्त्व को भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वे ही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परंतु अब तक अपने को नहीं भूली थीं। वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्ण को, परंतु उनके संस्कार बीच में एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतम के बीच में एक पुष्प का भी परदा नहीं रखना चाहता।

प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन। जहाँ तक अपना सर्वस्व-इसका विस्तार चाहे जितना हो-प्रेम की ज्वाला में भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँ तक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णता को दूर करते हुए, ‘शुद्ध भाव से प्रसन्न हुए’ (शुद्धभावप्रसादितः) श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली गोपियों! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्व को और अपने को भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे हृदय में जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षण के लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो?’

गोपियों ने मानो कहा-‘श्रीकृष्ण! हम अपने को कैसे भूलें? हमारी जन्म-जन्म की धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसार के अगाध जल में आकण्ठ मग्न हैं। जाड़े का कष्ट भी है। हम आना चाहने पर भी नहीं आ पातीं। श्यामसुन्दर! प्राणों के प्राण! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासियाँ हैं। तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेंगी। परंतु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’ साधक की यह दशा-भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारों में ही उलझे रहना-माया के परदे को बनाये रखना बड़ी द्विविधा की दशा है।

भगवान यही सिखाते हैं कि ‘संस्कार शून्य होकर, निरावरण होकर, माया का परदा हटाकर आओ। मेरे पास आओ। अरे, तुम्हारा यह मोह का परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो? यह परदा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ। अब तुम मेरे पास आओ, तभी तुम्हारी चिरसंचित आकांक्षाएँ पूरी हो सकेंगी।’ परमात्मा श्रीकृष्ण का यह आह्वान, आत्मा के आत्मा परम प्रियतम के मिलन का मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपा से जिसके अन्तर्देश में प्रकट हो जाता है, वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोड़कर, छोड़ना भी भूलकर प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ आता है। फिर न उसे अपने वस्त्रों की सुधि रहती है और न लोगों का ध्यान! न वह जगत को देखता है न अपने को। यह भगवत्प्रेम का रहस्य है।

विशुद्ध और अनन्य भगवत्प्रेम में ऐसा होता ही है। गोपियाँ आयीं, श्रीकृष्ण के चरणों के पास मूकभाव से खड़ी हो गयीं। उनका मुख लज्जावनत था। यत्किचित् संस्कारशेष श्रीकृष्ण के पूर्ण आभिमुख्य में प्रतिबन्धक हो रहा था। श्रीकृष्ण मुसकराये। उन्होंने इशारे से कहा-‘इतने बड़े त्याग में यह संकोच कलंक है। तुम तो सदा निष्कलंका हो; तुम्हें इसका भी त्याग, त्याग में भाव का भी त्याग-त्याग की स्मृति का भी त्याग करना होगा।’

गोपियों की दृष्टि श्रीकृष्ण के मुख कमल पर पड़ी। दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गये और सूर्य मण्डल में विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से ही उन्होंने प्रेम की भिक्षा माँगी। गोपियों के इसी सर्वस्व-त्यागने, इसी पूर्ण समर्पण ने, इसी उच्चतम आत्मविस्मृति ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम से भर दिया। वे दिव्य रस के अलौकिक अप्राकृत मधु के अनन्त समुद्र में डूबने-उतारने लगीं। वे सब कुछ भूल गयीं, भूलने वाले को भी भूल गयीं। उनकी दृष्टि में अब श्यामसुन्दर थे। बस, केवल श्यामसुन्दर थे।

जब प्रेमी भक्त आत्म विस्मृत हो जाता है, तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान पर होता है। अब मर्यादा रक्षा के लिये गोपियों को तो वस्त्र की आवश्यकता थी नहीं; क्योंकि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी। परंतु श्रीकृष्ण अपने प्रेमी को मर्यादाच्युत नहीं होन देते। वे स्वंय उन्हें वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा उन्हें विस्मृति से जगाकर फिर जगत् में लाते हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा-‘गोपियों! तुम सती-साध्वी हो। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है। तुम्हारा संकल्प सत्य होगा। तुम्हारा यह संकल्प–तुम्हारी यह कामना तुम्हें उस पद पर प्रतिष्ठित करती है, जो निस्संकल्पता और निष्कामता का फल है। तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण पूर्ण और अब आगे आने वाली शारदीय रात्रियों में हमारे साथ रमण होगा। भगवान ने साधना सफल होने की अवधि निर्धारित कर दी। इससे भी स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण में किसी भी काम-विकार की कल्पना नहीं थी। कामी पुरुष चित्त वस्त्र हीन स्त्रियों को देखकर एक क्षण के लिये भी कब वश में रह सकता है? 

एक बात बड़ी विलक्षण है। भगवान के सम्मुख जाने के पहले जो वस्त्र समर्पण की पूर्णता में बाधक हो रहे थे-विक्षेप का काम कर रहे थे-वे ही भगवान की कृपा, प्रेम, सांनिध्य और वरदान प्राप्त होने के पश्चात् ‘प्रसाद’ स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है? इसका कारण है, भगवान का सम्बन्ध। भगवान ने अपने हाथ से उन वस्त्रों को उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अंग कंधे पर रख लिया था। नीचे के शरीर में पहनने की साड़ियाँ भगवान के कंधे पर चढ़कर-उनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र-कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असल में यह संसार तभी तक बाधक और विक्षेप जनक है, जब तक यह भगवान से सम्बन्ध और भगवान का प्रसाद नहीं हो जाता।

उनके द्वारा प्राप्त होने पर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्क में जाकर माया विशुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरस से परिपूर्ण हो जाते हैं। तब बन्धन का भय नहीं रहता। कोई भी आवरण हमें भगवान के दर्शन से वंचित नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान का दर्शन होते रहने के कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इस स्थिति में पहुँचकर भी बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुष के समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की आपनी होकर गोपियाँ पुनः वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परंतु गोपियों की दृष्टि में अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं, वस्तुतः वे हैं भी नहीं-अब तो ये दूसरी ही वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान के पावन प्रसाद हैं, पल–पल पर भगवान का स्मरण कराने वाले भगवान के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसी से उन्होंने उन्हें स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादा के ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान की इच्छा से मर्यादा स्वीकार की।

इस दृष्टि से विचार करने पर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान की यह चीर हरण-लीला भी अन्य लीलाओं की भाँति उच्चतम मर्यादा से परिपूर्ण है। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं, जिनमें उनकी लीला का वर्णन हुआ है। उनमें से एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण की भगवत्ता का वर्णन न हो।

श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान’ हैं, यही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन ग्रन्थों को भी नहीं मानते। और जो उन ग्रन्थों को ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओं के आधार पर श्रीकृष्ण-चरित्र की समीक्षा करने का अधिकार भी नहीं रखते। भगवान की लीलाओं को मानवीय चरित्र के समकक्ष रखना शास्त्र दृष्टि से एक महान अपराध है और उसके अनुकरण का तो सर्वथा ही निषेध है।

मानव बुद्धि-जो स्थूलताओं से ही परिवेष्टित है-केवल जड के सम्बन्ध में ही सोच सकती है, भगवान की दिव्य चिन्मयी लीला के सम्बन्ध में कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियों के प्रेरक और बुद्धियों से अत्यन्त परे रहने वाले परमात्मा की दिव्य लीला को अपनी कसौटी पर कसती है। हृदय और बुद्धि के सर्वथा विपरीत होने पर भी यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान नहीं थे या उनकी यह लीला मानवीय थी, तो भी तर्क और युक्ति के सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती, जो श्रीकृष्ण के चरित्र में लांछन रूप हो।

श्रीमद्भागवत का पारायण करने वाले जानते हैं कि व्रज में श्रीकृष्ण ने केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था तक ही निवास किया था। यदि रासलीला का समय दसवाँ वर्ष मानें तो नवें वर्ष में ही चीर हरण लीला हुई थी। इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्ष के बालक में कामोत्तेजना हो सकती है। गाँव की गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमान काल की नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्ष के बालक से अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करें-यह कदापि सम्भव नहीं दीखता।

उन कुमारी गोपियों के मन में कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्ति की उट्टंकना है। आजकल जैसे गाँव की छोटी-छोटी लड़कियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पाने के लिये देवी-देवताओं की पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियों ने भी परम सुन्दर परम मधुर श्रीकृष्ण पाने के लिये देवी-पूजर और व्रत किये थे। इसमें दोष की कौन-सी बात है? आज की बात निराली है।

भोग प्रधान देशों में तो नग्न सम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने हुए हैं। उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्ति तक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एंव मलिन व्यापार के विरुद्ध है। नग्न स्नान एक दोष है, जो पशुत्व को बढ़ाने वाला है। शास्त्रों में इसका निषेध है; ‘न नग्नः स्नायात्’-यह शास्त्र की आज्ञा है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि गोपियाँ शास्त्र के विरुद्ध आचरण करें।

भारतीय ऋषियों का वह सिद्धान्त, जो सभी वस्तुओं में पृथक्-पृथक् देवताओं का अस्तित्व मानता है, इस नग्न स्नान को केवल लौकिक अनर्थ ही नहीं, देवताओं के प्रति अपराध बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवता का अपमान होता है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्न स्नान अनिष्ट फल देने वाला था और इस प्रथा के प्रभात में ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है, इसलिये श्रीकृष्ण ने अलौकिक ढंग से इसका निषेध कर दिया।

गाँवों की ग्वालिनों को इस प्रथा की बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्ण ने एक मौलिक उपाय सोचा। यदि वे गोपियों के पास जाकर उन्हें देवता वाद की फिलासफी समझाते तो वे सरलता से नहीं समझ सकती थीं। उन्हें तो इस प्रथा के कारण होने वाली विपत्ति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देना था और विपत्ति का अनुभव कराने के पश्चात उन्होंने देवताओं के अपमान की बात भी बता दी तथा अंजलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थना रूप प्रायश्चित्त भी करवाया। महापुरुषों के अंदर उनकी बाल्यावस्था में भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है। 

श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्ष के थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्न स्नान की कुप्रथा को नष्ट करने के लिये उन्होंने चीरहरण किया-यह उत्तर सम्भव होने पर भी श्रीमद्भागवत में आये हुए ‘काम’ और ‘रमण’ शब्दों से कई लोग भड़क उठते हैं। यह केवल शब्द की पकड़ है, जिस पर महात्मा लोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियों में और गीता में भी अनेकों बार ‘काम’, ‘रमण’ और ‘रति’ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है; परंतु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता। गीता में तो ‘धर्माविरुद्ध काम’ को परमात्मा का स्वरूप बतलाया गया है।

महापुरुषों का आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थिति में केवल कुछ शब्दों को देखकर भड़कना विचारशील पुरुषों का काम नहीं है। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं, उन्हें ‘रमण’ और ‘रति’ शब्दों का अर्थ केवल क्रीड़ा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरण के अनुसार ठीक है-‘रमु क्रीडायाम्।’ दृष्टि भेद से श्रीकृष्ण की लीला भिन्न-भिन्न रूप में दीख पड़ती है। आध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को आत्मा के रूप में देखते हैं और गोपियों को वृत्तियों के रूप में। वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आत्मा में रम जाना ही ‘रास’ है।

इस दृष्टि से भी समस्त लीलाओं की संगति बैठ जाती है। भक्तों की दृष्टि से गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का यह सब नित्य लीला-विलास है और अनादि काल से अनन्त काल तक यह नित्य चलता रहता है। कभी-कभी भक्तों पर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियों के साथ लीलाधम में प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तों के स्मरण-चिन्तन तथा आनन्द-मंगल की सामग्री प्रकट करके पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं।

साधकों पर किस प्रकार कृपा करके भगवान उनके अन्तर्मल को और अनादि काल से संचित संस्कारपट को विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी इस चीरहरण-लीला से प्रकट होती है। भगवान की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्त्व केवल भगवान ही जानते हैं और उनकी कृपा से उनकी लीला में प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं, यहाँ तो शास्त्रों और संतों की वाणी के आधार पर कुछ लिखने की धृष्टता की गयी है।
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रचना- श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार
पुस्तक- ‘श्रीराधा माधव चिन्तन’, कोड़-49
प्रकाशक- गीताप्रेस (गोरखपुर)

गणेश मुखी रूद्राक्ष पहने हुए व्यक्ति को मिलती है सभी क्षेत्रों में सफलता एलियन के कंकालों पर मैक्सिको के डॉक्टरों ने किया ये दावा सुबह खाली पेट अमृत है कच्चा लहसुन का सेवन श्रीनगर का ट्यूलिप गार्डन वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में हुआ दर्ज महिला आरक्षण का श्रेय लेने की भाजपा और कांग्रेस में मची होड़