छोड़कर सामग्री पर जाएँ

उड़ता अबीर गुलाल साथ चलने वाले रंगों से भरपूर जिंदगी, वह समाज था अलग

टैग्स:
इस ख़बर को शेयर करें:

ढोल, झाल और मजीरा की झंकार पर रसीले फाग, लहकते चैता और जोगीरा गाती टोली। चहुंओर होली के खिलते उत्साह से भरपूर बूढ़े, प्रौढ़, जवान, युवा और छोकरे सभी होते थे उस टोली के साथ। छोटे-बड़े, मझोले, गरीब, अमीर सब। जाति और संप्रदाय का अलगाव, हृदय में उतर जाने वाले “अविस्मरणीय लगाव” की शक्ल में सामने होता था। मुसलमान युवक और अधेड़ भी फाग की उस फुहार में शामिल रहते थे। हिंदू और मुसलमान दोनों को अपने अलग-अलग धर्म के होने का इल्म तो था लेकिन सामाजिक मंच पर अपने अलगाव का रत्ती भर भी इल्म नहीं। सब एक थे।

हर शरीर में थिरकन, हर चेहरे पर खुशी और हर दिल में एक साथ मिलकर आनंद लूट लेने का उत्साह। चारों ओर फागुन की मादकता लिए उठता शोर। रंगों से तर-ब-तर एक-दूसरे को रंग पोतने को दौड़ते बालक और बालिकाओं के झुंड। पिचकारियां भरते नन्हे बाल समूह।

पद में लगने वाली गांवभर (मुहल्ले) की भौजाइयों को वाचिक छेड़ना, उन पर रंग फेंकना, छेड़खानी के डर से उनका छिपना। फिर मुंडेर के ओट से उनका बाल्टी भर रंग फेंकना, रंग से तर होते ही पुरुषों का कबीरा गाना…।

छत की मुंडेर से छिपकर सारे आलम को देखते हुए कतरे-कतरे रस से ओतप्रोत होती नवबधुटियां (नई दुल्हनें)। दरवाजे की खटिया पर बैठे सारे दृश्य का मन ही मन रसपान करने वाले बुढ़उ बाबा। उनके माथे और चिपके गालों पर लगे गुलाबी और पीले चमकीले अबीर बताते थे कि उधर से गुजरने वाले लोग उनसे आशीर्वाद ले चुके हैं।

पूरे उमंग के साथ फाग गाती, दरवाजे- दरवाजे घूमती टोली के पीछे; छोटे-बड़े, मझोले, गरीब, अमीर सभी का चलना, सभी का सभी के साथ पूरे भाव से मिलना…..किसी दरवाजे पर गोझिया, किसी दरवाजे पर पापड़, कहीं तरावटी ठंडाई तो कहीं अन्य पकवानों से टोली का स्वागत किया जाता था।

बड़े शहर में नौकरी करने वाले शौकीन लोग होली की छुट्टी पर घर आते समय कुछ बोतलें लाते थे। यह जानकारी मुहल्ले के सभी लोगों को होती थी। फाग टोली जब अपना स्वागत पाकर उनके घर से आगे बढ़ती थी तो कुछ देर बाद पता चलता था कि भीड़ में से 4-5 लोग गायब हैं।….बहरहाल कुछ देर बाद गायब हुए वह 4-5 लोग मुंह पूछते हुए पुनः भीड़ में शामिल हो जाते थे।

10, 20 और 100, 50 रुपए का चंदा भी मिलता था। जिससे होलिका दहन के लिए लकड़ी, सबके लिए एक ड्रम रंग, ठंडाई, लाउडिस्पीकर आदि का प्रबंध होता था। अगर धन बच गया तो होली के दिन दोपहर बाद टोली अपने लिए सामूहिक भोज आयोजित करती थी।

अल्हण मौज और बेशुमार अलमस्ती को साथ लिए पोर-पोर परवान चढ़ती होली। लेकिन सब कुछ पुरखों से चली आ रही तहजीब और संस्कारों के बंधनों के साथ। किसी का कहा सुना कोई का बुरा नहीं मानता था। क्योंकि बाहर उड़ता अबीर – गुलाल उनके अंतश की रंगिनियों का ही प्रतिविंब था। अंदर की ही जीवंतता का वाह्य-प्रकटीकरण था। सबके साथ चलने वाले रंगों से भरपूर जिंदगी के वह लोग अलग थे। वह समाज अलग था। भाग्यशाली था।

“आज हम विकास की ऊंचाई वाले उस स्थान (चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव) पर पहुंच चुके हैं, जहां अभी तक कोई नहीं पहुंचा है।” वहां हम नहीं, हमारे प्रतिनिधित्व रूप में मशीनें पहुंची हैं।

मशीनों में गति है लेकिन जीवंतता नहीं। उनमें तकनीकी से भरा गया ज्ञान है, अपनी बुद्धि नहीं। उसमें कर्कश आवाज होती है लेकिन संवेदना नहीं। प्राण नहीं। जो क्रियाशील होते हुए भी निष्प्राण हैं ; वह मशीन हैं। मशीनी जीवन ही इस दौर में आधुनिक, सुशिक्षित, सभ्य और विकसित होने का प्रमाण है। उदघोष है।

आज हम विकास पथ पर – सामाजिक समरसता, एकजुटता और सबके हेलमेल से मिलने वाले अथाह आनंद को उत्पन्न करने वाले तीज, त्यौहार और उत्सवों को विसराते और त्यागते हुए आसमान की ऊंचाइयों की ओर हैं। जहां जमीन और जमीन के संस्कार नहीं हैं। जीवन भी नहीं।

गणेश मुखी रूद्राक्ष पहने हुए व्यक्ति को मिलती है सभी क्षेत्रों में सफलता एलियन के कंकालों पर मैक्सिको के डॉक्टरों ने किया ये दावा सुबह खाली पेट अमृत है कच्चा लहसुन का सेवन श्रीनगर का ट्यूलिप गार्डन वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में हुआ दर्ज महिला आरक्षण का श्रेय लेने की भाजपा और कांग्रेस में मची होड़