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अर्जुन जी ने श्री कृष्ण से पूंछा धर्म क्या है और अधर्म क्या है ?

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श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन जी से पूंछा – हे निष्पाप अर्जुन. जिस मार्ग पर चलकर. मनुष्य अपने को. आत्मा के रूप में देखता है. परमात्मा के अंश के रूप में. स्वयं को जानता है. उसी मार्ग को धर्म कहते हैं. जब मनुष्य. स्वयं को. परमात्मा के अंश के रूप में जान लेता है. तब उसे यह अनुभूति होती है. कि यह संपूर्ण सृष्टि ही. परमात्मा है. और यह परमात्मा ही सृष्टि है. सृष्टि और परमात्मा में कोई भेद नहीं, जो मनुष्य यह जान लेता है. वह दूसरे मनुष्य के प्रति. या प्राणियों के प्रति, निर्दई व कठोर नहीं होता।
वह जानता है कि. जीभ कटने से. पीड़ा केवल जीभ को नहीं होती. उसकी अनुभूति समस्त शरीर को होती है. वैसे ही. जैसे एक मनुष्य को पीड़ा होती है, तो समस्त संसार. उस पीड़ा का अनुभव करता है. जब तक संसार में एक मनुष्य भी पीड़ित है. तब तक वास्तव में किसी का भी सुख. संपूर्ण नहीं. यह जानने पर मनुष्य का मन करुणा से भर जाए उसे धर्म कहते हैं। जब किसी पर तमस गुण छाया होता है. तो वह दूसरों के प्रति कठोर. निर्दई. और स्वार्थी हो जाता है। अपने माने हुए सुख के लिए. वह दूसरों को दुख देता है. परमात्मा की ओर गति नहीं हो पाती उसकी. अर्थात अधर्म. परमात्मा से. दूर ले जाने वाले मार्ग का नाम है।
अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से पूंछा- . किंतु हे केशव अधर्म तो अज्ञान का दूसरा नाम है तो फिर अज्ञानी के प्रति तो दया होनी चाहिए दंड का क्या तात्पर्य है।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन से पूंछा- हे पार्थ प्राणी जब ज्ञान के मूल्य को जानने को सज ना हो. ज्ञान पर दृष्टि डालने को सज ना हो. तब दंड ही. दया है. उसके प्रति भी और दूसरों के प्रति भी. सृष्टि की गति परमात्मा की ओर ले जाना. अनिवार्य है. किंतु कभी-कभी. ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. की अधर्म. अज्ञान और मोह. बढ़ जाता है. संसार से. धर्म लुप्त होने का. भय बना रहता है। जब संसार से. धर्म लुप्त हो जाता है. तो करुणा भी नष्ट हो जाती है. और सत्य भी नष्ट हो जाता है। आने वाली पीढ़ियों को. धर्म प्राप्त हो सके. इसलिए अधर्म करने वालों का विनाश कर के. धर्म की पुण स्थापना करना अनिवार्य है. आज भी ऐसी ही स्थिति है भारत और धर्म स्थापना का कर्तव्य तुम्हारा है इसलिए निर्बलता का त्याग करो और युद्ध के लिए सज़ हो जाओ।
श्री अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से पूंछा – किंतु हे केशव. मेरे हाथों हत्याएं होगी. मेरे कारण किसी के प्राण जाएंगे. तो क्या मेरे अंदर की करुणा का. नाश नहीं हो जाएगा और यदि धर्म का आधार करुणा है. तो क्या. मेरी आत्मा अधर्मी नहीं हो जाएगी।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन जी से पूंछा- हे पार्थ कर्म का बंधन अवश्य निर्मित होता है. किंतु कार्य का बंधन निर्मित नहीं होता. तुम्हें .कर्म और कार्य के बीच क्या भेद है. यह जानना आवश्यक है. सभी कर्म. कार्य किंतु सभी कार्य. कर्म नहीं. इस भेद को समझो पार्थ! कर्म उस कार्य को कहते हैं. जिसके साथ फल की आशा जुडी हो. मनुष्य जब सुख की. संपत्ति की. प्रशंसा की. आशा की. इच्छा रख कर कोई कार्य करता है. तो वह कार्य के फल की आशा से बंध जाता है. जब किसी कर्म को फल की आशा से किया जाए. उसे सकाम कर्म योग कहते हैं, और जब किसी कर्म को. बिना किसी फल की आशा के किया जाए. उसे निष्काम कर्म योग कहते हैं. इसी कारण से उसे बार-बार. जन्म लेना पड़ता है. हे पार्थ वास्तव में मनुष्य को कर्म नहीं बांधता. उसे उस कर्म से जुड़ी आशाएं बांधती है।
हे पार्थ इस युद्ध में यदि तुम्हें विजय होने की आशा है. तो पराजित होने पर तुम्हें अत्यंत दुख होगा. और वह दुख तुमसे कोई और कार्य करवाएगा. जिसके लिए तुम्हें दूसरा जन्म लेना पड़ेगा. और यदि तुम विजई हुए तो तुम्हारा अहंकार बढ़ेगा. और वह अहंकार तुम्हें विश्व विजय के लिए प्रेरित करेगा, तुमसे हत्याएं करवाएगा, और उसका पाप तुम्हे बांधेगा, विचार करो यदि तुम्हें इस युद्ध में ना विजय का मोह ना पराज्य का भय तो इस युद्ध के अंत में तुम सुख प्राप्त होगा. या दुख प्राप्त होगा।
 
अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से पूंछा – हे केशव ना दुख प्राप्त होगा… ना ही सुख प्राप्त होगा।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन जी से पूंछा- हे पार्थ अर्थात तुम्हारा दुख. सुख. हताशा. निराशा. अहंकार. युद्ध के कारण नहीं है. युद्ध के साथ तुमने जो आशाएं बांध रखी हैं. उसके कारण है. क्या यह सत्य नहीं है पार्थ. दुख सुख को समान मानकर. लाभ. हानि. विजय. पराजय का विचार किए बिना. अपना धर्म मान कर. यदि तुम युद्ध करोगे पार्थ. तो तुम पाप के भागी नहीं बनोगे.। इसी को कर्म योग कहते हैं. जो सांख्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है. वह यह जान लेता है. वह शरीर नहीं. केवल एक आत्मा है. शरीर के भोग. और अनुभव केवल मृत्यु तक हैं. वास्तविक नहीं. केवल माया है. उसके लिए कर्म योगी बनना. सरल हो जाता है।
श्री अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से पूंछा – हे माधव. यदि कार्य से बंधन निश्चित है. तो क्या संसार का त्याग करके. सन्यास लेना उचित नहीं है।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन जी से कहा – हे पार्थ यह विचार फिर कभी मत लाना. इसी विचार का परिणाम है कि यह युद्ध. आज हो रहा है. विचार करो, सद्गुण से भरे धर्म को जानने वाले लोग जब कर्मों का त्याग करते हैं तब अधर्म से भरे लोग ही संसार को चलाते हैं. यदि महामहिम भीष्म ने संसार का त्याग ना किया होता तो आज अधर्म बढ़ता ही नहीं. और तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र ने यदि सन्यास ना लिया होता तो. आज भ्राता युधिस्टर आज राज कर रहे होते. और अपनी प्रजा को न्याय और धर्म का ज्ञान दे रहे होते. किंतु दुखदायक तो यह बात है पार्थ. की सदगुण से भरे. मनुष्य ही संसार को. लाभ दे सकते हैं. किंतु वह ही सन्यास का विचार करते हैं. जैसे जल तो भाप बनकर उड़ जाता है. किंतु कीचड़. कीचड़ वहीं पड़ा रहता है. वैसे ही सद्गुणी सज्जन लोग संसार का त्याग करते हैं. और तमस से भरे अधर्मी लोग़. संसार में कार्य करते हैं. इसी कारण संसार में पाप और अधर्म बढ़ता है. किंतु कर्म योग. इस विचित्र स्थिति में संसार का रक्षण करता है. कर्म योगी फल की आशा का त्याग करता है किंतु कर्मों का त्याग नहीं करता. वह इसी संसार में रहता है. सन्यासी की भांति सारे कार्य करता है. किंतु उन में स्वयं लिप्त नहीं होता कर्म योगी अपनी संतानों से. स्वजनों से. अपनी प्रजा से. कोई अपेक्षा या आशा नहीं रखता. स्वयं उसे सन्यास का लाभ मिलता है. किंतु संसार को संसारिक की भांति. लाभ देता है. हे पार्थ कर्म का त्याग तो वास्तव में निहित स्वार्थ का नाम है।
श्री अर्जुन जी ने श्री कृष्ण भगवान जी से कहा हे वासुदेव. मनुष्य अपनी संतान पर परिश्रम करता है. तो फिर वह अपनी संतान से. अपने भविष्य के प्रति सुख की कामना क्यों ना करें।
श्री कृष्ण भगवान जी ने – अर्जुन जी से कहा – मनुष्य अपनी संतानों के लिए जो भी करता है वह व्यापार है. या प्रेम. पार्थ … … …।
अर्जुन जी ने कहा – वह प्रेम है माधव.।
श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन से कहा- तो फिर प्रेम के बदले कर्म फल की इच्छा क्यों पार्थ. भविष्य का लाभ तो व्यापार में होता है. प्रेम में नहीं. जो मनुष्य अपनी संतानों को प्रेम और धर्म के संस्कार देता है. उस की संताने भी मनुष्य को. प्रेम व सुरक्षा अवश्य प्रदान करती है. संतानों के कर्म. स्वजनों के व्यवहार. उनके कर्म है पार्थ. जब उनके कर्मों पर. हमारा कोई अधिकार नहीं होता तो उनसे आशा और अपेक्षाएं रखने का क्या प्रयोजन. यदि गहन विचार करोगे पार्थ तो यह शीघ्र ही जान लोगे. संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं. जिसके साथ आशाएं और अपेक्षाएं जोड़ना अनिवार्य हो. जब सृष्टि ही परमात्मा है और मनुष्य स्वयं परमात्मा का अंश. तो सारे कार्य परमात्मा ही करते हैं. मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता. यही कर्म योग का मूल सिद्धांत है पार्थ. तुम्हें भी कर्म योगी बन कर यह युद्ध करना आवश्यक है पार्थ. तीन गुणों का त्याग कर के निर्गुण बन जाओ पार्थ. इस द्वंवद से मुक्त हो जाओ सदा सद्गुण अपना कर. परमात्मा में बुद्धि लगाकर. सदा अपने कर्तव्य का वहन करते जाओ. कुछ प्राप्त करने की इच्छा. और प्राप्त किए हुए के संरक्षण को. त्याग दो पार्थ. तुम्हारा अधिकार तो केवल कर्म करने का है. कर्म का फल ईश्वर के हाथ में है इसलिए ना कर्म से भागना उचित है. और ना ही कर्म के फल की आशा रखना उचित है।
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