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भगवान् का स्वरूप

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भगवान्‌ का वास्तविक स्वरूप कैसा है, इस बात को तो वे ही जानते हैं, परन्तु इतना तो निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि भगवान् अनेक रूपों और नामों से प्रसिद्ध होने पर भी यथार्थ में एक ही हैं; भगवान् या सत्य कदापि दो नहीं हो सकते। भगवान्‌ के अनन्त रूप, अनन्त नाम और अनन्त लीलाएँ हैं। वे भिन्न-भिन्न स्थलों और अवसरों पर भिन्न-भिन्न नाम-रूपों से अपने को प्रकाशित करते हैं भक्त अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भगवान् के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की उपासना करते हैं और अपने इष्टरूप में ही उनके दर्शन प्राप्तकर कृतार्थ होते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि एक भक्त का उपास्य-स्वरूप दूसरे भक्त के उपास्य-स्वरूप से पृथक् होने के कारण दोनों स्वरूपों की मूल एकता में कोई भेद है। वे ही ब्रह्म हैं, वे ही राम हैं, वे ही कृष्ण हैं, वे ही शिव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही सच्चिदानन्द हैं, वे ही माँ जगज्जननी हैं, वे ही सूर्य हैं और वे ही गणेश हैं ।
जो भक्त इस तत्त्व को जानता है, वह अपने इष्टरूप की उपासना में अनन्य भाव से संलग्न रहता हुआ भी अन्यान्य सभी भगवत् स्वरूपों को अपने ही इष्टदेव के रूप मानता है; इसलिये वह किसी का भी विरोध नहीं करता। वह अनन्य श्रीकृष्णोपासक होकर भी मानता है। कि ‘मेरे ही मुरलीधर श्यामसुन्दर भगवान् कहीं श्रीराम-स्वरूप में, कहीं शिव स्वरूप में, कहीं गणेश स्वरूप में, कहीं माँ काली के स्वरूप में और कहीं निर्लेप निराकार ब्रह्मरूप में उपासित होते हैं; मेरे ही श्यामसुन्दर अव्यक्तरूप से समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में नित्य एकरस व्याप्त हैं; वे ही मेरे नन्दनन्दन त्रिकालातीत, भूमा, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं, वे ही मेरे पुरुषोत्तम आत्मरूप से समस्त जीव-शरीरों में स्थित रहकर उनका जीवत्व सिद्ध कर रहे हैं।
वे ही समय-समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में अवतीर्ण होकर सन्त भक्तों को सुख देते और धर्म की स्थापना करते हैं और वे ही जगत् के पृथक्-पृथक् उपासक समुदायों के द्वारा पृथक्-पृथक् रूप-गुण-भावसम्पन्न होकर उनकी पूजा ग्रहण करते हैं। प्रत्येक परमाणु में उन्हीं का नित्य निवास है।’ इसी प्रकार अनन्य श्रीरामोपासक, अनन्य शिवोपासक और श्रीगणेशोपासकों को भी सबको अपने ही प्रभु का स्वरूप, विस्तार और ऐश्वर्य समझना चाहिये।
जो मनुष्य दूसरे के उपास्य इष्टदेव को अपने प्रभु से भिन्न मानता है, वह प्रकारान्तर से अपने ही भगवान्‌ को छोटा बनाकर उनका अपमान करता है। वह असीम को ससीम, अनन्त को स्वल्प, व्यापक को एकदेशी और विश्वपूज्य को क्षुद्रसम्प्रदाय पूज्य बनाता है। केवल हिन्दुओं के ही नहीं, समस्त विश्व की विभिन्न जातियों के पूज्य परमात्मदेव यथार्थ में एक ही सत्य तत्त्व हैं। ये सारे भेद तो देश, काल, पात्र, रुचि, परिस्थिति आदि के भेद से हैं, जो भगवत्कृपा से भगवान्‌ की प्राप्ति होने के बाद आप ही मिट जाते हैं; अतएव अपने इष्टस्वरूप का अनन्य उपासक रहते हुए ही वस्तुगत भेद को भुलाकर सब में, सर्वत्र, सब समय परमात्मा के दर्शन करने चाहिये। यह समस्त चराचर विश्व उन्हीं भगवान् का शरीर है, उन्हीं का स्वरूप है–यह मानकर कर्तव्य बोध से जीवमात्र की सेवा करके भगवान्‌ को प्रसन्न करना चाहिये। सम्प्रदाय भेद के कारण एक-दूसरे के उपास्यदेव की निन्दा करना अपराध है।
अतएव सारे भेदमूलक विरोधी द्वेष भावों को त्यागकर अपनी-अपनी भावना और मान्यता के अनुसार भगवान् की भक्ति करनी चाहिये। उपासना करते-करते जब भगवान् की कृपा का अनुभव होगा, तब उनके यथार्थ स्वरूप का अनुभव आप ही हो जायगा। भगवान्‌ का वह रूप कल्पनातीत है। मनुष्य की बुद्धि वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती। निराकार या साकार भगवान् के जिन-जिन स्वरूपों का वाणी से वर्णन या मन से मनन किया जाता है, वे सब शाखाचन्द्रन्याय से भगवान् का लक्ष्य कराने वाले हैं; यथार्थ नहीं। भगवान् का स्वरूप तो सर्वथा अनिर्वचनीय है। इन स्वरूपों की वास्तविक निष्काम उपासना से एक दिन अवश्य ही भगवत्कृपा से यथार्थ स्वरूप की उपलब्धिकर भक्त जीवन धन्य और कृतार्थ हो जायगा।
फिर भेद की सारी गाँठें अपने आप ही पटापट टूट जायँगी। परन्तु इस लक्ष्य के साधक को पहले से ही सावधान रहना चाहिये । कहीं विश्वव्यापी भगवान्‌ को अल्प बनाकर हम उनकी तामसी पूजा करने वाले न बन जायँ; कहीं असीम को सीमाबद्धकर हम उनका तिरस्कार न कर बैठें। भगवान् महान्-से-महान् और अणु-से-अणु हैं; त्रिकाल में नित्य स्थित और त्रिकालातीत हैं; तीनों लोकों में व्याप्त और तीनों से परे हैं। सब कुछ उनमें है और वे सबमें हैं। बस, वे ही वे हैं; उनकी महिमा उन्हीं को ज्ञात है; उनका ज्ञान उन्हीं को है, उनका स्वरूपभेद उन्हीं में है।
हमारा कर्तव्य तो विनम्र भाव से सदा सर्वदा उनके चरणों में पड़े रहकर उनके कृपा-कटाक्ष की ओर सतृष्ण दृष्टि से निहारते रहना ही है। जब वे कृपा करके अपना स्वरूप प्रकट करेंगे, तभी हम उन्हें जान सकेंगे। इसके सिवा उन्हें जानने का हमारे लिये और कोई भी सहज उपाय नहीं है। परन्तु इसके लिये हमें कुछ तैयारी करनी होगी; मन का मैल दूर करना होगा, सारे जगत्‌ में उनका दीदार देखना होगा; सभी धर्मों और सम्प्रदायों में उनकी छाया का प्रत्यक्ष करना पड़ेगा। जगत्‌ में कौन ऐसा है, जिसका किसी प्रकार से भी उन्हें स्वीकार किये बिना छुटकारा हो सके। भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली नाना नदियाँ एक ही समुद्र की ओर दौड़ती हैं। इसी तरह सभी को सुखस्वरूप भगवान् की ओर दौड़ना पड़ता है। नास्तिक को भी किसी-न-किसी प्रकार से उनकी सत्ता स्वीकार करनी ही पड़ती है; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ? इसलिये सबमें उन्हें देखने की कोशिश करनी चाहिये।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारायण नम”
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