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अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूंछे – कर्म योगी को कैसे पहचाने

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अर्जुन ने श्री कृष्ण भगवान जी से कहा… तू फल का त्याग कर. किंतु कर्म का त्याग ना कर. ऐसे कर्म योगी को. कैसे जाना जा सकता है. माधव श्री कृष्ण भगवान जी ने अर्जुन से कहा. ..

सुनो पार्थ जो स्वाद से छूटने के लिए. भोजन का ही त्याग कर देता है वास्तव में. उसके मन से स्वाद की लालसा. कभी जाती ही नहीं. उसे दोहरी हानि होती है. एक तो वह निर्बल हो जाता है. जिसके कारण परमात्मा को प्राप्त करने का जो प्रयत्न अनिवार्य है.

उसे वह. नहीं कर पाता. और दूसरा सदा ही. उसका मन. स्वाद की. लालसा से भरा रहता है. इसलिए भोजन का त्याग करने से उत्तम है. स्वाद की लालसा का ही त्याग कर दिया जाए.

कर्म योगी अपने मन की सारी लालसाओ को खींच लेता है. जीवन को कर्तव्य मानकर कार्य अवश्य करता है. किंतु उन कार्यों से स्वयं जुड़ता नहीं. और पार्थ जो व्यक्ति अपने कार्यों से आशाएं और इच्छाएं नहीं रखता उसी के कार्य पूर्ण होते हैं.

एक असफलता से दुखी होकर. जिसका मन. डोलता नहीं. एक सफलता से आनंदित होकर जो स्वयं को. सर्वश्रेष्ठ नहीं मानता. ऐसे ही व्यक्ति को कर्म योगी कहते हैं. और ऐसा व्यक्ति जीवन में बार बार सफल होता है.

फल की आशा से कामना प्रकट होती है. और कामना का तो स्वभाव है. असंतुष्ट रहना. असंतोष से क्रोध उत्पन्न होता है. और क्रोध से. मोंह जनता है. मोह के कारण. व्यक्ति आचार और व्यवहार का. ज्ञान ही भूल जाता है.

ज्ञान के जाने से. बुद्धि चली जाती है. अनुचित प्रकार के. कार्य होने लगते हैं. और समाज. ऐसे व्यक्ति का. शत्रु बन जाता है. और अंत में ऐसे मनुष्य पूर्णत: से पतन हो जाता है. जैसे भ्राता दुर्योधन. उनके सेनापति महामहिम. उनके ही शत्रु हैं. और तुम्हें विजय का आशीर्वाद दिया है.

पार्थ. कर्म योग. ब्रह्मविद्या का दूसरा चरण है. परमात्मा में अपनी बुद्धि स्थिर करो. स्वयं को आत्मा जानो. मिथ्या बंधनों से मुक्त हो जाओ. और फल की आशा का. त्याग करके केवल कर्म करते रहो. श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा… . अपनी बुद्धि.

परमात्मा में स्थिर करके. कर्म योगी बनने का. क्या मार्ग है माधव श्री कृष्ण भगवान जी ने. अर्जुन से कहा. . पार्थ सांख्य योग के कारण. मनुष्य परमात्मा का निरंतर स्मरण करता रहता है. परमात्मा का स्मरण करने से. मनुष्य के हृदय में समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. और उस भाव को भक्ति कहते हैं.

भक्ति से मनुष्य को सत्य और असत्य का ज्ञान उत्पन्न होता है. और ज्ञान से उसे. परमात्मा के दर्शन होते हैं. और जिसे परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं. वही वास्तव में. कर्म योगी बन जाता है. जन्मों के फेरो से छूट कर. मोक्ष को प्राप्त कर लेता है.

सभी आत्माओं का अंतिम लक्ष्य वही है. और धर्म का अंतिम चरण भी वही है श्री अर्जुन जी ने. श्री कृष्ण भगवान जी से कहा. किंतु मैं परमात्मा के दर्शन किए बिना समर्पण किस प्रकार कर सकता हूं माधव.

श्री कृष्ण भगवान जी. ने अर्जुन से कहा. . परमात्मा के दर्शन करने हेतु. अपनी आंखों पर बंधे. लालसा. अहंकार. क्रोध. और पूर्वाग्रह की पट्टियों को उतारना होता है. अंधेरी कक्ष में बैठा मनुष्य. यदि कहे कि. मुझे सूर्य के दर्शन करने हैं. तुम उससे क्या कहोगे. यही कहोगे ना पार्थ की कक्ष से बाहर आ जाएं और आकाश के नीचे खड़े हो जाएं. सूर्य तो सदैव उपस्थित है.

वैसे ही पार्थ. सृष्टि ही परमात्मा है. परमात्मा ही सब कुछ है. परमात्मा के सिवा कुछ भी नहीं. जो अपनी आत्मा की दर्शन कर लेता है. वह परमात्मा के दर्शन कर लेता है. स्वाद. समग्र सागर के स्वाद से भिन्न नहीं होता. वैसे ही. अपनी आत्मा की दर्शन. परमात्मा के दर्शन से. भिन्न नहीं होते.

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