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वृन्दावन में एक भक्त को बिहारी जी के दर्शन नहीं हुए। लोग कहते कि अरे! बिहारी जी सामने ही तो खड़े हैं। पर वह कहता कि भाई! मेरे को तो नहीं दिख रहे!
इस तरह तीन दिन बीत गये पर दर्शन नहीं हुए। उस भक्त ने ऐसा विचार किया कि सबको दर्शन होते हैं और मेरे को नहीं होते, तो मैं बड़ा पापी हूँ कि ठाकुरजी दर्शन नहीं देते; अत: मेरे को यमुनाजी में डूब जाना चाहिये।
ऐसा विचार करके रात्रि के समय वह यमुना जी की तरफ चला। वहाँ यमुना जी के पास एक कोढ़ी सोया हुआ था। उसको भगवान् ने स्वप्न में कहा कि अभी यहाँ पर जो आदमी आयेगा, उसके तुम पैर पकड़ लेना। उसकी कृपा से तुम्हारा कोढ़ दूर हो जायगा।
वह कोढ़ी उठकर बैठ गया। जैसे ही वह भक्त वहाँ आया, कोढ़ी ने उसके पैर पकड़ लिये और कहा कि मेरा कोढ़ दूर करो।
भक्त बोला कि अरे! मैं तो बड़ा पापी हूँ, ठाकुर जी मुझे दर्शन भी नहीं देते! बहुत झंझट किया; परन्तु कोढ़ीने उसको छोड़ा नहीं।
अन्त में कोढ़ी ने कहा कि अच्छा, तुम इतना कह दो कि तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाय।
वह बोला कि इतनी हमारे में योग्यता ही नहीं।
कोढ़ी ने जब बहुत आग्रह किया तब उसने कह दिया कि तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाय। ऐसा कहते ही क्षण मात्र में उसका कोढ़ दूर हो गया।
तब उसने स्वप्न की बात भक्त को सुना दी कि भगवान् ने ही स्वप्न में मुझे ऐसा करने के लिये कहा था।
यह सुनकर भक्त ने सोचा कि आज नहीं मरूँगा और लौटकर पीछे आया तो ठाकुरजी के दर्शन हो गये।
उसने ठाकुर जी से पूछा कि महाराज! पहले आपने दर्शन क्यों नहीं दिये?
ठाकुर जी ने कहा कि तुमने उम्र भर मेरे सामने कोई माँग नहीं रखी, मेरे से कुछ चाहा नहीं; अत: मैं तुम्हें मुँह दिखाने लायक नहीं रहा! अब तुमने कह दिया कि इसका कोढ़ दूर कर दो, तो अब मैं मुँह दिखाने लायक हो गया! इसका क्या अर्थ हुआ?
कि जो कुछ भी नहीं चाहता, भगवान् उसके दास हो जाते हैं।
हनुमान्जी ने भगवान् का कार्य किया तो भगवान् उनके दास, ऋणी हो गये — ‘सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं’ (मानस, सुन्दर० ३२।४)। सेवा करने वाला बड़ा हो जाता है और सेवा कराने वाला छोटा हो जाता है।
परन्तु भगवान् और उनके प्यारे भक्तों को छोटे होने में शर्म नहीं आती। वे जान करके छोटे होते हैं। छोटे बनने पर भी वास्तव में वे छोटे होते ही नहीं और उनमें बड़प्पन का अभिमान होता ही नही!