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औरंगज़ेब ने मथुरा के पास गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथ जी मन्दिर के गोसाई लोगों के पास अपना आदमी भेजकर कहलाया कि तुम जल्द ही यहां से निकाले जाओगे। गोसाई दामोदर जी घबराए और श्रीनाथ जी की मूर्ति को एक रथ में बिठाकर अपने संबंधियों सहित वहां से रवाना हुए और आगरा पहुंचे।
16 दिन आगरा में छिपे रहकर ये लोग को बूंदी के राव राजा अनिरुद्ध सिंह हाड़ा के पास गए। औरंगज़ेब के भय के कारण बूंदी में इनको अधिक समय नहीं ठहराया गया। फिर ये लोग कोटा पहुंचे, जहां के राव जगतसिंह हाड़ा ने इनको कुछ समय के लिए कृष्ण विलास में ठहराया।
इन लोगों ने बरसात का मौसम कृष्ण विलास में ही काटा। कोटा से रवाना होकर ये लोग पुष्कर पहुंचे। पुष्कर में ये अधिक समय नहीं रहे, क्योंकि पुष्कर में कई मंदिर थे, जिससे भय था कि यहां बादशाही फौज कभी भी हमला कर सकती है।
पुष्कर से रवाना होकर ये लोग राठौड़ राजपूतों की रियासत किशनगढ़ में पहुंचे। किशनगढ़ के राजा मानसिंह राठौड़ ने कहा कि “आपको छिपकर यहां रहना मंज़ूर हो तो रहो, ज़ाहिरा तौर पर हम आपको यहां नहीं रख सकते।”
गोसाई लोगों ने बसंत ऋतु और गर्मी के दिन किशनगढ़ में ही छिपकर गुजारे और फिर बरसात के दिनों में मारवाड़ पहुंचे। जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह राठौड़ इन दिनों अपने ननिहाल में थे। गोसाई लोगों ने जोधपुर से तीन मील दूर चाम्पासेणी गांव में श्रीनाथ जी को पधराया।
बरसात ख़त्म होने तक ये लोग वहीं रहे। 6 माह तक गुसाईं लोग चाम्पासेणी के निकट स्थित कदमखेड़ी गांव में रहे। इस प्रकार 2 वर्षों तक भटकने के बावजूद किसी राजा ने औरंगज़ेब के भय से इनको शरण नहीं दी। क्योंकि शरण देने का अर्थ था औरंगज़ेब से सीधा विद्रोह। आखिरकार गोसाई दामोदर जी के काका गोविंद जी अकेले ही मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के पास पहुंचे और महाराणा से कहा कि आप हमें वचन दें कि इस मूर्ति की रक्षा करेंगे।
महाराणा राजसिंह ने मेवाड़ कुल व अपने वंश की गरिमा को ध्यान में रखकर खुशी से कहा कि “मैं ये तो नहीं कह सकता कि औरंगजेब इस मूर्ति को नहीं छू सकेगा, लेकिन इतना तय है कि मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कटेंगे, तभी औरंगजेब श्रीनाथ जी की इस मूर्ति को हाथ लगा सकेगा”।
17 नवम्बर, 1671 ई. को गोविंद जी बड़े खुश होकर चाम्पासेणी गए और वहां से सभी गोसाई लोगों के साथ मूर्ति को लेकर मेवाड़ के लिए रवाना हुए। जब श्रीनाथ जी की मूर्ति मेवाड़ की सीमा में प्रवेश कर गई, तो महाराणा राजसिंह पेशवाई के लिए खुद वहां तक गए।
जहां दूसरी रियासतों में गुसाईं लोगों को छिपकर रहना पड़ा, वहीं मेवाड़ के महाराणा ने बड़े धूमधाम के साथ श्रीनाथ जी का स्वागत सत्कार किया। ढोल नगाड़ों और गाजे बाजों से मुगल सल्तनत को स्पष्ट संदेश दिया गया कि धर्म पर प्रहार करोगे तो फ़रमान धरे के धरे रह जाएंगे। 20 फरवरी, 1672 ई. को उदयपुर से 12 कोस उत्तर की तरफ बनास नदी के तीर सिंहाड़ गांव में मंदिर बनवाकर श्रीनाथ जी को शनिवार के दिन पाट बिठाया।